बेहाल बाड़मेर का दर्द : हमारे यहां पर भी कौन कौन है शामिल जिनके पाकिस्तानी तस्करों से जुड़ें हुए है खुलेआम तार
राजू चारण
बाड़मेर ।। साल 1998 की बात रही होगी। अटारी बॉर्डर पर सरहद पार से आने वाले मुसाफिरों की चेकिंग चल रही थी। सामने एक महिला आई, तो पुलिस इंस्पेक्टर ने कड़क आवाज़ में कहा, ‘बीबी! तेरा बहुत बार पाकिस्तान आना-जाना होता है’। ‘नातेदारी है वहां अपनी’, महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। ‘तो बता गठरी में क्या है?’ इंस्पेक्टर ने सख्त लहजे में पूछने के साथ ही पुलिसवालों को गठरी खोलने का इशारा कर दिया। महिला चुप रही। गठरी से निकली एक नई नवेली जूसर मशीन। एक पुलिसवाला डिब्बे से बाहर निकालकर उस पर मेटल डिटेक्टर घुमाने लगा। तभी इंस्पेक्टर गुस्से में चीखा, ‘इस पर दो हथौड़े तो बजा।’ पुलिसवाले ने हथौड़ा उठाया और जूसर पर दे मारा। कई टुकड़े हो गए उस जूसर मशीन के और बाहर निकलीं कई पिस्टलें।
गठरी में पिस्टलों की तस्करी करते पकड़ी गई उस महिला का नाम था फैमिदा। वह कैराना कस्बे की थी, जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर ज़िले का हिस्सा हुआ करता। फैमिदा 90 के दशक में समझौता एक्सप्रेस के ज़रिए सरहद पार पाकिस्तान तक पान-सुपारी और मसालों का कारोबार करने वाले मुसाफिरों का हिस्सा थी। कैराना से पान-सुपारी और मसालों की गठरियां पाकिस्तान जातीं। वहां से मिर्जा चप्पलों और डिस्को कपड़े उन्हीं गठरियों में बंधकर कैराना पहुंचते। मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म ‘डिस्को डांसर’ से इस कपड़े का चलन आमजन के बीच शुरू हुआ था। बेहद चमकीले और भड़कीले रंगों वाले इस कपड़े की क़मीज़ सिलवाकर पहनना नौजवानों का शौक हुआ करता था तब।
इस व्यापार के अलावा भी कैराना के सैकड़ों परिवारों का रोटी बेटी का रिश्ता था पाकिस्तान के कई शहरों से। बंटवारे के चलते कैराना और लाहौर के बीच की करीब साढ़े चार सौ किलोमीटर की दूरी बेहद लंबी लगने लगी थी, लेकिन भारतीय रेल समझौता एक्सप्रेस ने इसे पाटने का काम किया। गठरी कारोबार शुरू हुआ, लेकिन इसी में अपराध पनपना शुरू हो गया। पाकिस्तान से आने वाली मिर्जा चप्पल का तला करीब ढाई इंच मोटा होता था। पाकिस्तानी तस्करों को इसमें एक रास्ता दिखा। इस तले को बड़ी सफाई से काटकर इसमें सोने का एक बिस्किट रख दिया जाता। एक जोड़ी चप्पल 200 ग्राम से ज़्यादा सोने की तस्करी का ज़रिया बन गई। यह सिलसिला कई बरसों तक चला।
शामली के वरिष्ठ पत्रकार इंद्रपाल पांचाल उस दौर को याद करते हुए कहते हैं कि एक समय अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में सोने की क़ीमतें हर देश में एक जैसी हो गईं। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई भी तब तक गठरी कारोबार में अपने लिए भारत की अर्थव्यवस्थाओं में जगह तलाश चुकी थी। सोने के बिस्किटों की जगह अब हथियारों ने ले ली। मिर्जा चप्पल की आमद कम हो गई और पिस्टलों को ढोने के लिए लाहौर का जूसर गठरियों में जोरदार चलने लगा।
कैराना में चार बेटों के पिता हाजी अकबर का दूसरे नंबर का बेटा इकबाल भी इस धंधे में अपना रोज़गार तलाश चुका था। इकबाल ग्रैजुएट था और उसने मदरसे में इस्लामिक शिक्षा पायी थी। हाजी अकबर कैराना के बेगमपुरा बाज़ार में फलों का ठेला लगाते। इकबाल ने पढ़े-लिखे होने का फायदा उठाया। वह पाकिस्तान जाने वालो के लिए पासपोर्ट और वीजा बनवाने में मुसाफिरों की मदद करने लगा। कमाई हुई, तो इसी बाज़ार में अपना एक ऑफिस खोल लिया। अब इकबाल के तार पाकिस्तान की आईएसआई से सीधे ही जुड़ चुके थे। उसकी बाईं आंख में हल्का सा ऐब था, इसलिए लोग उसे इकबाल ‘काना’ कहते थे। उसने गठरियां ले जाने वाले मुसाफिरों को अपने काम के लिए खरीदना शुरू किया। वह टूर के लिए हर मुसाफिर को तीन हज़ार रुपये देता था। मुसाफिर को गठरी में पान-सुपारी और मसाले ले जाने होते। लौटते समय उनकी गठरी में क्या बांधा जाता, इस बारे में सवाल करने की मनाही थी। टूर एंड ट्रैवल्स ऑफिस की आड़ में इकबाल काना का हथियारों का धंधा जोरों से चल निकला। मुसाफिर पकड़े जाते, तो वह उनकी जमानत भी वही कराता। वह अपने गैंग में खूबसूरत महिलाओं को भर्ती करता। महिलाएं नकाब में रहतीं,इसलिए उनके पकड़े जाने की आशंका भी कम रहती। बला की खूबसूरत फैमिदा भी इसी गैंग का हिस्सा थी।
सहारनपुर के खेड़ा गांव की एक लड़की से 1992 में इकबाल काना की शादी हुई थी, पर तीन साल बाद ही उसने अपनी बीवी को तलाक दे दिया। इस तलाक की वजह थी इकबाल काना का नया इश्क, मुमताज। कैराना के पास के ही गांव जलालाबाद की मुमताज, इकबाल के मुसाफिर गैंग में आई और उसने पाकिस्तान के कई टूर किए। हर बार मुमताज को कामयाबी मिली। उसकी इसी चालाकी और खूबसूरती पर फिदा हो गया था इकबाल।
कैराना के पत्रकार मेहराब चौधरी बताते हैं कि फरवरी 1995 में पाकिस्तान में बैठे इकबाल के आकाओं ने उसे बातचीत के लिए सरहद पार बुलाया। वह पाकिस्तान में ही था, तभी उसकी 75 पिस्टलों की एक खेप दिल्ली में पकड़ी गई। साथ में 6 मुसाफिर भी पुलिस ने पकड़े। कड़ी पूछताछ में उन लोगों ने इकबाल काना का नाम ले दिया और वह भारतीय सुरक्षा एजेंसियों में ‘वॉन्टेड’ हो गया।
उसने पाकिस्तान में रहते हुए किसी तरह मुमताज को अपने पास बुला लिया और फिर हमेशा के लिए सरहद पार के पंजाब में बस गया। उसे जानने वाले बताते हैं कि अब वह आईएसआई के लिए काम करता है। कैराना के पट्टोंवाला गांव का दिलशाद मिर्जा भी इकबाल काना के साथ उसका दाहिना हाथ बनकर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों के लिए काम करता है। इसी तरह, जेल से छूटने के बाद फैमिदा ने अपना नाम बदलकर हामिदा कर लिया और किसी तरह पाकिस्तान चली गई। सन 2000 में वह पाकिस्तानी नागरिक बनकर भारत आयी और अपना घर बागपत में बताते हुए वहां का वीजा लिया। लेकिन बागपत के बजाय वह कैराना में अपने परिवार के बीच आकर रहने लगी। स्थानीय खुफिया ने जब हामिदा की तलाश की, तो वह कैराना में मिली। उसे वापस पाकिस्तान भेज दिया गया। कैराना में उसके पड़ोसी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि फैमिदा अब हामिदा बनकर पाकिस्तान के लाहौर में बस गई है। इकबाल काना से अब भी ताल्लुकात हैं उसके।
कैराना और आतंक का कनेक्शन और भी है। शामली पुलिस के एक सीनियर अधिकारी की मानें, तो दरभंगा पार्सल ब्लास्ट मामले में 58 साल का सलीम अहमद उर्फ हाजी सलीम टुइयां और उसका पड़ोसी कफील अहमद शामिल थे। एनआईए की पूछताछ में दोनों का पाकिस्तानी तस्करों से कनेक्शन मिला। पुलिस सूत्रों की मानें, तो सलीम टुइयां आईएसआई से जुड़ी एक महिला से लगातार फोन पर बात करता था।
कैराना के आलखुर्द बिसातियान मुहल्ले की संकरी-सी गली में कफील का घर है, बेहद तंग। कफील की बहन शहनाज बताती हैं कि वे लोग आसपास के गांवों में मसाले बेचते थे। मसालों का स्टॉक रखने के लिए घर में जगह नहीं थी, तो कफील ने हाजी सलीम के चार मंजिला घर के निचले हिस्से में स्टोर बना लिया। पाकिस्तानी तस्करों से कनेक्शन के सवाल पर शहनाज बिफरकर कहती हैं, ‘वह तो क्या, हमारे बाप ने भी कभी पाकिस्तान नहीं देखा।’
कफील का घर इस गली के मुहाने पर है और अगले मोड़ पर हाजी सलीम टुइयां की चार मंजिला शानदार कोठी खड़ी है। कफील के साथ ही मसाले का कारोबार करने वाले सलीम टुइयां पर उम्र के इस दौर में अचानक पैसे की बरसात हो गई। इस बात को लेकर मुहल्ले के लोग भी अचरज में थे, लेकिन एनआईए ने जब इन दोनों की गिरफ्तारी की तो बात समझ में आ गई। जांच में यह भी पता चला है कि हाजी सलीम टुइयां और कफील के बैंक खातों में हवाले से मोटा पैसा आया है। इकबाल काना और हाजी सलीम टुइयां की उम्र का अंतर भी ज़्यादा नहीं है।
कैराना के इन दो संदिग्धों की गिरफ्तारी से पहले एनआईए ने दरभंगा में ब्लास्ट हुए पार्सल के अवशेषों पर लिखे एक फोन नंबर की तहकीकात की। यह नंबर कैराना के किसी शख़्स का था। एनआईए कई बार आयी और दर्जनों लोगों से पूछताछ के बाद उसने हैदराबाद के नामपल्ली से नासिर मलिक उर्फ नासिर खान और मोहम्मद इमरान मलिक को गिरफ्तार किया। जांच एजेंसी के प्रेस नोट के मुताबिक, दोनों सगे भाई हैं और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी। अपने हैंडलर्स के इशारे पर इन दोनों ने आईईडी बम बनाकर उसे एक कपड़े के पार्सल में पैक किया और सिकंदराबाद से दरभंगा जाने वाली लंबी दूरी की ट्रेन में बुक करा दिया था। एजेंसी के मुताबिक, नासिर खान 2012 में पाकिस्तानी तस्करों के साथ में लश्कर के हैंडलर्स से मिला था। उसने वहां स्थानीय बाज़ार में आसानी से मिलने वाले रसायनों के इस्तेमाल से आईईडी बम बनाना सीखा।
दूसरी ओर, इन दोनों के पिता हाजी मूसा खान कैराना में अपने पुराने मकान को दिखाते हुए कहते हैं कि नासिर 20 साल से हैदराबाद में कपड़े का कारोबार कर रहा था। उसके बीबी-बच्चे भी वहीं रहते हैं। कुछ साल पहले वह छोटे भाई इमरान को भी अपने साथ ले गया। दोनों कम पढ़े-लिखे हैं। मूसा खान दावा करते हैं कि वह भारतीय सेना के पूर्व सैनिक हैं और उनका बेटा कपड़े के कारोबार के साथ भारतीय खुफिया एजेंसी का सिपाही था। लेकिन, इन दोनों दावों को साबित करने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं। उनके नाम राशन की एक दुकान रही है। आगे से घर टूटा-फूटा है, लेकिन दूसरी ओर प्लॉट के एक बड़े हिस्से में जोरशोर से काम जारी है। सवाल फिर वही है कि जब घर में खाने के लाले हैं, तो मकान बनवाने के लिए 80 साल की उम्र में मूसा खान के पास लाखों रुपये कहां से आए?