सरकारी आंकड़ों के मकड़जाल में उलझे हमारे अपने : राजू चारण
बाड़मेर ।। सच पर पर्दा डालने या उसे अपनी मर्जी का दिखाने-बताने की प्रवृत्ति सिर्फ व्यक्तियों में ही नहीं, हमारी-आपकी सामाजिक कार्यकर्ता से लबालब संस्थाओं में भी प्रभावी रही है। पहले के मुकाबले हमारा समाज ज़्यादा जागरुक जरूर हुआ है इसलिए यह प्रवृत्ति घटना चाहिए थी लेकिन हमारे यहां लगातार दिनों-दिन बढ़ती रही है। कोई भी जागरुक व्यक्ति या समाज अपने सच या तथ्य को नहीं छुपाना चाहता क्योंकि छुपाने से समस्याएं ख़त्म होने के बजाय बनी रह जाती हैं, उदाहरण के लिए अगर कोई बालक या किशोर अपनी किसी बीमारी या कमजोरीयों को अपने घर वालों से छुपाता है तो उसकी समस्याएं दूर होने बजाय हमेशा के लिए बनी रह जाती हैं और उसे जीवन में वह ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं हमारे समाज के साथ भी यही बात है। अप्रिय तथ्यों और आंकड़ों को छुपाने से वो अप्रिय सच्चाइयाँ खत्म नहीं हो जाती है और विकराल हो जाती हैं।सच के सामने न आने से उन अप्रिय सच्चाइयों से निपटने के लिए सही समय पर समुचित हस्तक्षेप नही हो पाता!
हमारे देश में, खासकर कुछ राज्यों में इस अभूतपूर्व कोराना भड़भड़ी रूपी महामारी के दौर में ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है। इन कुछ राज्यों में कोरोना से सम्बन्धित आकड़े छुपाये जा रहे हैं। अधिकृत आंकड़ों के नाम पर जनता जनार्दन को झूठ परोसा जा रहा है। क्या इससे किसी व्यक्ति, समाज या शासन का फायदा होता है? किसी सूबे या क्षेत्र के लोगों की सेहत की वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालने से क्या वहां का सच बदल जायेगा? पिछले दिनों कुछ नदियों की धारा याउनके किनारे की अफसोसनाक असलियतों की खबरें जब देशभर के समाचार पत्रों और हाईटेक प्रणाली से लैस मीडिया के एक हिस्से में आईं तो शासन ने उनसे इंकार करने की जोरदार कोशिश की थी पर वह असलियत कैसे छुपती? बाद में नदियों के किनारे प्रशासनिक अधिकारीयों और कर्मचारियों द्वारा निगरानी बढ़ाई गयी इससे उस तरह की घटनाओं पर जरूर कुछ तो अंकुश लगा।
ऐसे राज्यों के ग्रामीण अंचल में इन दिनों भयावह स्थिति पैदा हो गयी है। अधिसंख्य देशभर के गावों की एक सी कहानी है. गांव वाले लगातार बीमार पड़ रहे हैं तो उनकी कोराना भड़भड़ी की टेस्टिंग नही हो पा रही है क्योंकि गांव ग्वाड़ ओर ग्राम पंचायतों के आसपास न तो कोई स्वास्थ्य केंद्र है और न कोई ऐसा अधिकृत डाक्टर है जो मरीजों की उचित जांच करे। पहले के बने सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों का एक हिस्सा लगभग बंद हो चुका है, कुछ के जर्जर भवन ढह चुके हैं और कुछ पर अधिकारियों और कर्मचारियों के आशिर्वाद से ताला लटका रहता है। गांव ग्वाड़ में जो लोग कुछ धनी और प्रभावशाली हैं, वे ज़िला मुख्यालय या पास के कस्बे या शहर में जाकर कोराना भड़भड़ी टेस्टिंग की कोशिश करते हैं इसमें कुछ कामयाब होते हैं, ज्यादातर लगभग नाकाम. टेस्टिंग न हुई मानो कोई बड़ी सर्जरी हो रही है!
क्या हमारे दूर दराज के गांव ग्वाड़ पंचायत, तहसील क्षेत्रों में टेस्टिंग के लिए दक्षिण भारत के राज्यों की तरह जैसे केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक या आंध्रप्रदेश की तरह अपेक्षाकृत बेहतर व्यवस्था नहीं की जा सकती? हिंदी भाषी क्षेत्रों के गांवों में जब तक लोगों की जांच हो या कई दिनों बाद उसकी रिपोर्ट आये, उसके पहले ही उनमें अनेक लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं. सोचिये, ये मौत है या व्यवस्थागत हत्या? गांव ग्वाड़ की बात छोड़िये, आजकल बड़े बड़े शहरों का हाल भी बहुत बुरा है।
पिछले दिनों हमारे परिचित एक वरिष्ठ पत्रकार के पिता जी बीमार हुए. उस शहर में एक जगह अपनी टेस्टिंग कराई. चूंकि सारे लक्षण कोरोना के थे, इसलिए उन्होंने डाक्टरी सलाह लेकर दवाएं शुरू कर दीं लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका। लेकिन उनकी टेस्टिंग की रिपोर्ट मौत के एक या डेढ़ सप्ताह बाद आई थी, यह एक ऐसे प्रदेश की राजधानी का वाकया है, जहां पिछले कई सालों से ‘सुशासन’ एक शासकीय नारे के रूप में बहु-प्रचलित है। उसके अगल बगल के राज्य के हाल भी कुछ कम भयावह नहीं! कोई पता कर ले कि वहां इस वक्त प्रतिदिन कितने लोगों की टेस्टिंग हो रही है! ग्रामीण क्षेत्रों में कितनी टेस्टिंग दिन-प्रतिदिन हों रही है?
जो आंकड़े आजकल सरकार द्वारा परोसे भी जा रहे हैं, वे कितने वास्तविक हैं? सच ये है कि ऐसे कई प्रदेशों के पास Covid19 से संक्रमित होने या मरने वालों के सही आकड़े ही नहीं हैं. यह बात दुनिया के अनेक बड़े वैज्ञानिक और चिकित्सा-शास्त्री भी कह रहे हैं।
हमारे यहां एक समय ‘टीका-उत्सव’ घोषित हुआ था, उत्सव हुआ और शायद खत्म भी हो गया होगा पर इन सूबों, खासकर गावों-कस्बों में टीका-टिप्पणी और टीकाकरण किधर है?
ऐसा लगता है, पिछले दो माह से कुछ राज्यों में लोंगो को बचाने से ज्यादा आंकड़े छुपाने पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. समझ में नहीं आता, इसके पीछे क्या नजरिया है अधिकारियों का ? क्या मतदान करने वाले ओर मजबूत सरकार देने वाले इंसान सिर्फ संख्या ही है कि उनकी संख्या छुपाकर सबको सेहतमंद और सब कुछ सामान्य बता देंगे? क्या इससे सच्चाइयाँ बदल जायेंगी? जिनके घरों के लोग टीका और सही दवा के अभाव में बेमौत मर रहे हैं, क्या वे दिवंगत लोग फिर अपने परिवारों में लौट आयेंगे और पहले की संख्या बरकरार रहेगी? फिर हमारे शासन ओर अधिकारी छुपा क्यों रहा है? यह हाल कुछ राज्यों तक सीमित नहीं है।
सात-आठ साल पहले पश्चिम भारत के जिस प्रदेश को पूरे देश के लिए ‘विकास का माडल’ कहकर पेश किया गया था, वहां के हालात भी ऐसे ही हैं. बस एक अंतर है, वहां के एक बड़े क्षेत्रीय अखबार ने आंकड़े की हेराफेरी के इस ‘विकास माडल’ का ठोस तथ्यों के साथ पर्दाफाश जरूर कर दिया। हिंदी भाषी क्षेत्रों में ऐसा कुछ नहीं हो सका क्योंकि मीडिया के नाम पर यहां या तो चैनल तंत्र, टीवीपुरम् है या भक्त-मंडल है या फिर डरे हुए जरूर कुछ कारोबारी हैं!
सच छुपाने से सच और विकराल होता जा रहा है। यक़ीनन यह सिर्फ प्रशासनिक और राजनीतिक नजरिये का संकट नहीं है, वस्तुतः यह हमारा सभ्यतागत संकट है। हमारे विचारों, मूल्यों और संवेदनाओं के मृत होते जाने का भयावह मानवीय संकट!