म्हारो थारो के हुयो भाया…राजू चारण
बाड़मेर ॥ म्हारो थारो के हुयो भाया ये जम्मू कश्मीर में उस पहाड़ी जबान का हिस्सा है जो गूजर- बकरवाल अमूमन ज्यादा बोलते है।कश्मीर में चौधरी मसूद उस गूजर समुदाय के पहले ग्रेजुएट है। वे पुलिस सेवा में एडिशनल डी जी पद तक पहुंचे और फिर राजौरी में एक यूनिवर्सिटी के संस्थापक कुलपति भी रहे। कहने लगे ‘गूजर रोजमर्रा में म्हारो थारो जैसे शब्द खूब बोलते रहते है। क्योंकि गुजरी भाषा राजस्थानी भाषा के बहुत करीब है।
कश्मीर में ऐसे असामाजिक तत्वों को कोई कमी नहीं है जो किसी बात पर सरहद के उस पार देखते है। लेकिन बकरवाल गूजर जब भी कोई दुःख तकलीफ आती है , तो सिर्फ और सिर्फ दिल्ली की तरफ देखते है। उनके डेरे सदा ए सरहद के आस पास ही होते है। कई बार दहशगर्दों ने उनके डेरे तोड़फोड़ दिए और उन्हें आर्थिक नुकसान पहुंचाया।
भारत की विविधता उसकी ताकत है।कही भाषा ,कही लिबास ,कही खान पान ,कही आस्था और कही परम्पराये एक दूजे को जोड़ती है।कुछ लोग परस्पर जोड़ने के जरिये ढूंढ कर सुकून महसूस करते है ,कुछ लोग तोड़ने के बहाने अमूमन तलाशते रहते है।फासले बढ़ाने से बढ़ते है ,घटाने से हमेशा घटते है। चौधरी मसूद कहते है -कहीं वे बनहार है ,कही बन गुजर है ,कही बकरवाल है। मगर हं सब एक ही। ये पहाड़ो में है तो ,मैदानों में भी।कोई काश्त कार है ,कोई पशुपालक।
भारत में ब्रिटिश दौर में जॉर्ज अब्राहिम ग्रियर्सन इंडियन सिविल सर्विस के कर्मचारी के रूप में भारत आये। उन्होंने भारत में बहुत सी भाषाओ पर बहुत काम किया। उन्हें लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया” का प्रेणता माना जाता है।
उन्होंने गुजरी भाषा को राजस्थानी बोली बताया और कहा ये मेवाती के करीब है और मेवाड़ी से भी मिलती जुलती है। गुजरी जबान उर्दू प्रभाव वाले क्षेत्रो में बोली जाती है और इसमें प्रभाव क्षेत्र में बड़ा पहाड़ी इलाका है। इस जबान का पूँछी ,पंजाबी ,कश्मीरी और डोगरी पर भी प्रभाव है।जम्मू कश्मीर में कश्मीरी और डोगरी के बाद यह सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है।
इटालियन विद्वान टैसीटोरी ने भी राजस्थान में भाषा और संस्कृति पर बहुत सराहनीय काम किया है। वे रियासतकाल में बीकानेर रहे। उन्होंने भी राजस्थानी भाषा और गुजरी जबान में निकट रिश्तो की बात कही थी।
संस्कृत भाषाओ की जननी है। शब्दों की बानगी देखिये संस्कृत में कर्म है। यही राजस्थानी ,गुजरी ,कांगड़ी ,पंजाबी और हिंदी में ‘काम’ हो जाता है। संस्कृत में कर्ण है। इन सब भाषाओ में सुनंने के मानव अंग को कान कहते है।संस्कृत में मस्त से मस्तिक बना। यानि ललाट। राजस्थानी और गुजरी में इसे माथो कहते है। पंजाबी और कांगड़ी में मथा है।संस्कृत में तप्त मतलब गर्म। गुजरी में तातो ,राजस्थानी में भी कमोबेश तातो या तातोज ,कांगड़ी और पंजाबी में ताता है। संस्कृत में वस्ति है। गुजरी और राजस्थानी में बासनो है।
भाषाओ ने इंसान की तरह अपना दिल और शामियाना कभी छोटा नहीं रखा।जब भी नए शब्द आये ,भाषा ने उसे गले लगाया और आत्मसात कर लिया।कौन यकीन करेगा अलमारी ,आलपिन और बाल्टी पुर्तगाल जबान से आये और हिंदी के कुनबे का हिस्सा बन गए। शब्दों की यह यात्रा एक तरफा नहीं है। जयपुर के कर्नल पूर्ण सिंह ने फ्रेंच भषा में राजस्थानी से मिलते चार सो शब्द ढूंढ निकाले। जब हम भी अपने दिल का दयार भाषा की तरह बड़ा कर लेंगे ,नफरत और परायेपन की दीवारे भरभार कर जमीन पर आ गिरेगी।