मानवता को शर्मशार करने का जिम्मेदार कौन : राजू चारण

मानवता को शर्मशार करने का जिम्मेदार कौन : राजू चारण

बाड़मेर ।। असम के दुराग जिले से आई उन तस्वीरों और वीडियो को अब तक पूरी दुनिया में देखा जा चुका है। इनमें जनता और समाज की सुरक्षा के लिए नियुक्त सुरक्षा एजेंसियों के सशस्त्र कर्मियों के साथ कैमरे से लैस एक फोटोग्राफर भी है। समाज और लोगों की सुरक्षा के लिए नियुक्त कर्मी लाठी-गोली का इस्तेमाल कर रहे हैं तो वह फोटोग्राफर एक मरे या अधमरे व्यक्ति के शरीर को कूद-कूदकर पैरों से कुचल रहा है। आसपास में ही कोई दूसरा कैमरामैन जरूर होगा जो यह सारा दृश्य रिकार्ड कर रहा है उसकी वजह से ही दुनिया को बर्बरता और नफ़रत की ये तस्वीरें देखने को मिलीं।

पुलिस या सुरक्षाकर्मियों के लाठी-गोली चालन के साथ उस फोटोग्राफर की शर्मनाक हरकतों को देखिये, जो मरे या अधमरे आदमी के शरीर पर कूदकूदकर हमला कर रहा है, बर्बरता और नफ़रत का यह परनाला कितना भयानक है! बर्बरता और नफ़रत का यह परनाला नया नहीं है, अचानक नहीं ख़ुद गया, इसे सदियों पहले खोदा और चौड़ा किया गया. तब से लगातार बहता आ रहा है यह. आज आपने असम में इसे देखा, एक रिपोर्टर के रूप में मैने इसे दिल्ली, यूपी, बिहार, पंजाब, आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर सहित अन्य राज्यों में अनेक बार देखा है। यह अखिल भारतीय है, इसकी जड़ें हमारे समाजों में बहुत गहराई तक जमी हुई हैं. यही कारण है कि ये नफ़रत और बर्बरता सिर्फ लाठीधारी या बंदूकधारी तक सीमित नहीं है, कैमरा-धारियों और कलमधारियों तक इसका फैलाव है।

हमारा मीडिया आजकल सुबह से शाम तक पड़ोसी देशों अफगानिस्तान से आती तालिबान की बर्बरता की तस्वीरें (पश्चिम की न्यूज़ एजेंसियों से प्राप्त) दिखाकर अपनी मानवीय जिम्मेदारी और व्यापक जन सरोकारों का परिचय देने की कोशिश करता रहता है. पर अपने समाज में कदम-कदम पर जो नफ़रत, अन्याय और बर्बरता पसरी है, उस पर आमतौर पर ख़ामोश रहता है। क्या नफ़रत भरे एक अलोकतांत्रिक और असहिष्णु समाज़ का मीडिया लोकतांत्रिक हो सकता है ?
ऐसे समाजों में मीडिया को लोकतांत्रिक और जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए जो ठोस आत्मगत प्रयास की जरूरत होती है, क्या वे हमारे मीडिया में होते नजर आ रहे हैं ?

दुराग से आई बर्बरता और नफ़रत की तस्वीरों को किसी स्थान या व्यक्ति से जोडने का कोई खास औचित्य नहीं है। बर्बरता और नफ़रत की ये जड़ें हमारे समाजों में इतनी गहरी हैं कि ये हमारे असंख्य लोगों के दिमागों में गाँठ की तरह जमी हुई हैं। आजादी के बाद हमने एक राष्ट्र के रूप में अपने को सभ्य, शालीन, लोकतांत्रिक, समझदार और जिम्मेदार बनाने के सबसे जरूरी कदम उठाये ही नहीं, दक्षिण के कुछ राज्यों ने ऐसे कदम उठाये तो वे आज भी अपेक्षाकृत बेहतर नजर आते हैं।

बर्बरता की ऐसी तस्वीरें जब कभी सामने आती हैं तो हमारे यहां कुछ दिन निन्दा-अभियान जरूर चलते रहते हैं, चिंता जताई जाती है आजकल यह अच्छी बात है. पर उससे होता क्या है ? कुछ कमेटियां आकस्मिक बनती हैं, फिर सब हमेशा की तरह शांत हो जाता है. ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है’ के समानांतर ही कभी कभार ‘बर्बरता और नफ़रत का परनाला’ भी बहता रहता है।

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