बाड़मेर : लाशो की कीमते लगाकर हमारी मानवीय संवेदनाए हुईं समाप्त

बाड़मेर : लाशो की कीमते लगाकर हमारी मानवीय संवेदनाए हुईं समाप्त

राजू चारण

बाड़मेर ।। संसार के मानचित्र में अपनी अलग जगह बना चुके हाईटेक डुबाई काले सोने के नाम से राजस्थान के बाड़मेर जिले में कई खनिज पदार्थो के मिलने के बावजूद भी बाड़मेर जिला आज भी विकास के अभाव में घुट घुटकर जी रहा है। थार की धरती से निकलने वाले खनिज पदार्थो से केन्द्र और राज्य सरकार के राजस्व कोष को बढावा दे रहा है राज्य में केन्द्र सरकार द्वारा बाड़मेर जिले के विकास के कई वादे करने के बाद भी बाड़मेर जिला आज भी विकास की महत्वपूर्ण पटरी जैसे देश-भर के अन्य राज्यों के लिए हमारे सरहदी इलाकों की सुरक्षा में तैनात फ़ौजी भाइयों, भारतीय सेना के जवानों और प्रवासी राजस्थानियों के लिए लम्बी दूरी की रेलगाड़ियों ओर हवाई सेवाओं से आज़ भी कोसों दूर है।

बाड़मेर जिले में इन औधोगिक कम्पनियों के आने से बाड़मेर जिले में पुलिस थाने नागाणा, बाड़मेर ग्रामीण, कोतवाली, सदर, आर.जी.टी, पचपदरा, गुड़ामालानी थाना सहित कई थानों में अपराधों का ग्राफ दिनों दिन जरूर बढ रहा है। क्षेत्र में आकस्मिक दुघटनाए होने पर कम्पनियां ओर उनके मातहत मोलभाव करने में माहीर है उन्होंने दुनिया देखी है लेकिन बाड़मेर जिले में ग्रामीणों के साथ खिलवाड़ कर यहां के कई नव निर्माण समाज सेवियों के साथ मिलकर एक खेल जरूर खेल रही है जिसको राज्य सरकार द्वारा अपने स्तर रोका जाना बहुत आवश्यक है अन्यथा जिले में कभी भी भंयकर अपराध होने पर जिला प्रशासन एवं पुलिस प्रशासन के हाथ पावं फूल जायेगे, जिनको रोकना भविष्य के लिए अतिःआवश्यक है।

थार नगरी के नाम से जाने वाला बाड़मेर शहर कभी अपनी लोक संस्कृति और परमपराओं के लिए जाना जाने वाला रेगिस्तानी जिला बाड़मेर देशी विदेशियों कंपनियों के फेर में मानवीय संवेदनाए भूल कर हमारे अपनों के शवो की कीमते लगाने के घ्रर्णित कार्यो को अंजाम दे रहा हें। पैसो के लालच में लोग अपने रिश्तेदारों और परिजनो के शवो की कीमते लगा कर पैसा बटोरने में थोड़ी भी शर्म महसूस नहीं कर रहे हैं। निजी कंपनियों ने जो लालच का बीज बाड़मेर वासियों के मन में बोया था आज पूरा पेड़ बनकर उभरा हुआ है हमारे पूरे समाजो को खुल्लेआम निगल रहा है। कंपनियों द्वारा लालच रूपी नोटों की थैलिया परोसकर अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए बाड़मेर की जनता-जनार्दन का गलत इस्तेमाल कर रही है वही जनता भी थोड़े से पैसो के लालच में अपना जमीर बेच रहे है।

कभी आदिवासी क्षेत्रो में मौताणे की परंपरा थी। कभी दुर्घटना में कोई व्यक्ति दम तोड़ देता तो उसका शव रख उसके मुआवजे की मांग कर लेते, वो आदिवासी थे जिन्हें किसी समझदार श्रेणी में समाज नहीं रखता था आजकल वह बाड़मेर जिले की जनता जनार्दन से हजारों कोस आगे निकल कर विकासशील हो गया है। मौताणे की घटनाओ पर अक्सर राजनेता हो हल्ला करते, अपने निजी स्वार्थ एवं कम्पनियों पर अपना दबाव बनाने के लिए, मगर अब इस परंपरा का चलन बाड़मेर जैसे शांतप्रिय इलाके में धड़ल्ले से हो रहा है। जहा कंपनी के क्षेत्र में या बाहरी किसी व्यक्ति की मौत हो जाये, तो शवो को नजदीकी अस्पताल की मोर्चरी या फिर मौका स्थल सड़क पर रख उसकी कीमत वसूलने में जुट जाते है, बेसक मुआवजा मृतक के आश्रितों का वाजिब हक होता है मगर विश्वपटल पर शान्त आबोहवा वाले बाड़मेर जैसलमेर सरहदी इलाकों में बसे हुए लोगों के लिए यह हक मांगने का तरीका बिलकुल ही गलत है।

बाड़मेर की जनता को वेदान्ता केयर्न और जिंदल ओर गुड़ामालानी इलाकों में लगीं हुईं निजी कंपनियों ने शवो के सौदे करने तो सिखाये ही साथ ही जिले की कानून व्यवस्था को भी चुनौती देना सिखा दिया। किसी बात पर राष्ट्रिय राजमार्ग जाम करना, गाडियों के शीशे तोड़ना, सड़क जाम करना, टायर जलाना, रास्ते जाम करना, उपद्रव फैलाना सब कुछ सिखा दिया बाड़मेर जिले की जनता को। पिछले दस बीस वर्षो से बाड़मेर में कोई तीन चार दर्जन से अधिक मामले हो गए जिसके चलते किसी कंपनी में कार्यरत व्यक्ति की मौत हो गयी। शव अस्पताल पहुंचे उससे पहले मुआवजे को लेकर शव सड़को पर रख उसकी कीमतें लगाने लग जाते है। इसमें हमारा जिला प्रशासन और स्थानीय पुलिस प्रशासन, जन प्रतिनिधि, समाजसेवी बराबर के दोषी है जो ऐसे कानून तोड़ने वाले लोगो को खुलकर शह देते है। जिले के कई समाजसेवियों ने उक्त कार्य को अपना धन्धा बना लिया है इसकी आंड में कंपनियों में अपनी दादागिरी चलाते है। कंपनियों के अधिकारियो और आन्दोलन करियो के बीच में अपने आप को बीचोलियां बताकर अपनी भूमिकाओं को निभाते है, जहां पुलिस प्रशासन को कानून तोड़ने वालो के खिलाफ कार्यवाही अमल में लाने की बजाय उन्हें शह देकर लाशो के सौदे तय किये जाते है। यह तो नहीं थी हमारे थार की धरती, आखिर लोग लाशो के पैसो से पूरी जिंदगी निकल लेंगे, क्यूँ बाड़मेर के लोग मानवता और संवेदनशीलता छोड़ पशुओं की तरह बन गए। क्यूँ थोड़े से लालच के कारण मरे हुए व्यक्ति की आत्मा को शांति प्रदान करने की बजाय कीमत लगाने में जुटे रहते है। बीस से पेंतीस से लेकर आजकल पच्चास साठ लाख रुपये कीमत लगाते है हमारे अपनों के शवो की। यहां पर कार्यरत श्रमिक के मरने पर लोगों को जातियों व राजनितिक वर्चस्व के हिसाब से मुआवजा लगाकर दिया जाता है किसी को दस हजार तो किसी को पच्चास साठ लाख। यहां इसानों का मोलभाव जानवरों के सम्मान किया जाता है।

उच्च न्यायलय ने स्पष्ट आदेश कर रखा है की सड़को के हाईवे जाम करने वालो से सख्ती से निपटा जाए तो फिर हमारी पुलिस उन्हें क्यूँ पुचकारती है क्यूँ अनुनय विनय करती है समझौते के लिए। अगर कंपनी की गलती से किसी की मृत्यु हुई है तो नियमानुसार उसे मुआवजा देना ही पडेगा, मगर बाड़मेर के लोगो ने जो रास्ता मुआवजे लेने के लिए चुना है उससे इंसानियत शर्मशार होती है। एक बार नहीं बार बार, अभी भी वक्त है। कभी कभार छोटे बड़े विज्ञापन के चलते हमारे पत्रकारिता करने वाले महानुभावों औधोगिक कंपनियों के हाथो में कठपुतली की तरह खेलने की बजाय लापरवाही बरतने वाली कंपनियों की कमजोरियों को उजागर कर उनके खिलाफ कार्यवाही अमल में लाने का प्रयास जरूर करना चाहिए।

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