राज्य में मौजूदा हालात को देखते हुए खाकी वैक्सिन बहुत जरूरी

राज्य में मौजूदा हालात को देखते हुए खाकी वैक्सिन बहुत जरूरी

राजू चारण

बाड़मेर ।। कोरोना भड़भड़ी की शुरुआत में पिछले साल हुए लॉक डाउन के समय लिखा था कि “आपत्तिकाल में व्यक्ति सबसे पहले वो करता है जिसमे वो हमेशा पारंगत होता है” ओर हम पारंगत हैं कानून व्यवस्था के मुद्दों से निपटने में। तो हमने शब्द तो ले लिये आधुनिक शब्दावली से “सोशल डिस्टेंसिन्ग ” क्वारंटाइन” और हैंड हाइजीन, मास्क, इत्यादि लेकिन कोरोना से लड़ने में हमारा मुख्य हथियार था पुलिसिया लाठी। याद करिये जब लॉक डाउन के समय लोगों के बीच आपस मे होने वाली चर्चाओं और चुटकुले भी इस पर होते थे कि घर के बाहर निकलने पर पुलिसकर्मियों द्वारा पिटाई कैसे होती है। उधर सोशल मीडिया जिसे अपने माध्यम के जिस बहुमूल्य समय का उपयोग लोगों को शिक्षित करने में करना था, उस समय का उपयोग मरकज, जमाती इत्यादि में कर रहा था।क्योंकि हम इसी मे सबसे ज्यादा निपुण हैं, पारंगत हैं. इस चिकित्सकीय आपदा से निपटने के लिये हमने दंगों से निपटने वाली मानसिकता से काम लिया। इस मेडिकल इमरजेंसी में जहां हमारे सफेद कोट वाले डॉक्टर्स को नेतृत्व करना था, वहां खाकी वर्दीधारी पुलिसकर्मियों और प्रशासनिक अधिकारी कोरोना के खिलाफ “लड़ाई” का नेतृत्व कर रहे थे। अब ये लड़ाई और कोरोना योद्धा जैसे शब्द भी मुझे बहुत बेचैन कर देते थे। क्योंकि इससे किसी मरीज के इलाज की बजाय , उसकी सार संभाल के बजाय हम उसे लड़ाई का हिस्सा बना देते हैं। क्योंकि कोरोनावायरस तो अदृश्य है, उसका तो कोई भौतिक अस्तित्व आपको हमारे को दिखता नही, तो जिस व्यक्ति के शरीर मे कोरोना है , आपके सब कॉन्शस में वह शत्रु की तरह प्रतीत होने लगता है। तो खाकी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की लड़ाई कोरोना नामक बीमारी के बजाय (उनके पुराने अनुभवों के आधार पर, जिसमे उन्होंने दंगों पर हमेशा नियंत्रण पाया है) उन लोगों पर शिफ्ट हो गई जो कोरोना के वास्तविक थे।

– कोरोना पॉजिटिव मरीज
– आम व्यक्ति जो कोरोना पॉजिटिव तो नही है पर जो दंगे अर्थात कोरोनावायरस को भड़काने का सम्भावित एजेंट हों सकता है।
– मरकज / जमाती जिसे इस सब तमाशे में एक और “दुश्मन” के तौर पर चिन्हित कर लिया गया था, कुछ हमारे सोशल मीडिया की बेवकूफी से और कुछ खाकी और प्रशासनिक अधिकारियों के पूर्व अनुभवों के आधार पर….

यहां नोट करिये कि डॉक्टर्स, चिकित्सा स्टाफ, इत्यादि लड़ाई के नायक नही बल्कि सहायकों की भूमिका में हमेशा नजर आते हैं। हमारे देश की प्रशासकीय व्यवस्था में तकनीकी विशेषज्ञों के मुकाबले प्रशासनिक और खाकी वर्दी को ही आज-कल ज्यादा महत्व देने की परंपरा हमने इस चिकित्सकीय परामर्श आपदा में भी जारी रखी. प्रशासनिक अधिकारियों ने दूध, सब्जी,किराणा, राशन वितरण तक पर अपनी छाप छोड़ी क्योंकि दवाइयां या परीक्षण करने का तो कुछ था नही।

कुछ था तो वे थे सरकारी आंकड़े ओर उनका मकड़जाल , निजी और सरकारी हॉस्पिटल्स , उनके डॉक्टर्स और उनका मौजूदा स्टाफ. तो हमारे देश का वरिष्ठ नेतृत्व इनके लिए ताली थाली दिया बाती करता रहा और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी इन्हें “नियंत्रित” करने में लगे रहे।

इनके लिए सुविधाएं , साजो सामान, परीक्षण किट की व्यवस्था बस ऊपरी ऊपरी प्राथमिकताओं में दिखाई देती थी। पिछले साल मुख्य चिकित्सा अधिकारी कार्यालय के सामने कोराना वारियर्स को अस्पताल वार्ड ड्यूटी के पश्चात जिन होटलों में दस पन्द्रह दिन तक रूकवाया गया था वहां पर पीने के लिए पानी तक उपलब्ध नहीं हुआ फिर जिला मुख्यालय पर नर्सिंग संगठनों द्वारा चंदा एकत्रित कर कोराना वारियर्स के लिए पानी की बोतलों को भेज कर राहत पहुंचाई।

इधर लॉक डाउन जैसे भारी भरकम शब्द को सीखने के बाद इसके उपयोग करने में भी हम पश्चिमी देशों की नकल करने के लिए, लूडो, कुकिंग, कैरम कार्ड्स इत्यादि का उपयोग करने में व्यस्त रहै।

इस सबमे कोरोना नामक बीमारी की चिकित्सा, या उसकी रोकथाम की गंभीर कोशिश कहीं पर दिखाई दी आपको ? तो हमने कोरोना को भी एक दंगा मान लिया, कोरोना प्रभावित क्षेत्रों को दंगाग्रस्त क्षेत्र, जिसमे लोगों के आने जाने पर प्रतिबंध लगाना, और दूध सब्जी की सप्लाई काटना, बहाल करना, समय-समय पर सरकारी पास जारी करना, लोगों को आवागमन करने में अंतरराज्यीय यात्राओं की अनुमतियाँ देना, बस यही किया।

कहीं कहीं कोरोना भड़भड़ी का मुकाबला हमने प्राकृतिक आपदा की तरह भी किया और “फंसे हुए” लोगों को “रेस्क्यू” करने की भी कवायदें की गईं, जिनमे कोई बुराई नही थी लेकिन स्थानीय स्तर पर उनकी दिक्कतों का हल ढूंढने के बजाय उन्हें लंबी दूरियां तय करके लाने में कितना संक्रमण को बढ़ावा दिया गया वह अफसोसनाक है।

प्रवासी व्यक्तियों को (अपने ही देश मे एक इलाके से दूसरे इलाकों में अपने पुश्तैनी घरों में जाने पर प्रवासी कहलाना भारतवर्ष मे ही संभव है) आने जाने में किसी भी तरह की सुविधा शासन द्वारा न दे पाना और जो दिया जाना, वह हमारे तीर्थ यात्राओं के प्रबंधन की तरह था , लंबी कावड़ यात्राओं, और हज और जियारत की तरह ही हमारे विभिन्न शहरों की सामाजिक संस्थाओं, और सामाजिक , राजनीतिक हस्तियों ने, फिल्मी सेलिब्रिटियों ने , लंगर लगा दिए यात्राओं के इंतजाम करा दिए, किसी ने दया दृष्टि दिखाने के लिए चप्पलें बांटीं तो किसी ने हवाई जहाज के टिकिट तक दे दिए, और ये बात मैं पूरी गंभीरता से कह रहा हूँ, इन व्यवस्थाओं को देख कर, और उन यात्रियों, उनके परिवारों, बच्चों को देख कर कई कई बार मेरे दिल में रुलाई आ जाती थी।

कभी लोगों की तकलीफें देख कर तो कभी तकलीफों के निदान करने वाले देवदूतों की शक्लें और उनके कामकाज को देख कर. क्या आप विश्वास करेंगे कि एक मोटर साइकिल मैकेनिक ने इस लॉक डाउन के समय मे जब सब बेरोजगार हो जाने और अपना काम धंधा कम हो जाने की वजह से हो रही आर्थिक तंगी का रोना रो रहे थे, ऐसे समय मे भी, उस मेकेनिक ने हाईवे पर आने जाने वाली साईकिलों और दोपहिया वाहनों की मरम्मत की , पूरे चार छः महीने तक.

आर्थिक पैकेजों की बात केवल टीवी चैनल में सुनने वाले माध्यम वर्ग ने अपना दिल बड़ा रखते हुए अपने यहां काम करने वाली सहायिकाओं को, चौकीदारों को, बिना काम और बुलाये दो महीने की तनख्वाह जरूर दे दी, जबकि उस मध्यमवर्गीय घर की खुद की आमदनी ही आधी भी नही रह गई होगी। ये सब हमारे भारत की जनता ने किया, क्योंकि हम अपने लोगों की तक़लिफों को जो जानते थे वो हमने मन लगाकर किया।लेकिन इस सबके बीच भी कोरोना से बचाव को लेकर सरकारी प्रयास आपको कहां-कहां पर दिख रहे हैं ? सिर्फ लॉक डाउन लगाने, कर्फ्यू लगाने, प्रतिबंध जारी करने तक, बस.

हमारी सरकार तो उन निजी संस्थानों के निजी अस्पतालों तक से काम नही करा पाईं जिन्हें “समाज हित” मे एक रुपए में दसियों एकड़ जमीन दे दी गई थी। इस प्रत्याशा में कि वक्त आने पर ये हमारे अपनों की सार संभाल करेंगे. सार संभाल तो दूर, कुछ अस्पतालों ने अपने यहां ताले लगा दिए, जिन्होंने ताले नही लगाए उन्होंने कोविड पैकेज जारी कर दिए। फिर तो वास्तव में चिकित्सा, प्रशासन, आर्थिक, सामाजिक किस मोर्चे पर आपको कोरोना से असली मुकाबला दिखाई दिया ?

इसका समाधान बड़ा आसान है, भारतीय आम आदमी को सेल्फ गिल्ट में फंसा दो. बस जिम्मेदारी तय हो गई हमारी सबकी, और सब कहने लगेंगे ये तो हम लोग ही है ना, हमही लोग सहयोग नही कर रहे जिला प्रशासन को. तो भैया आप बता दो, सरकार ने क्या किया जिसके विरुद्ध हम गए हों ? सोशल डिस्टेंसिन्ग ? मास्क? तो भैया बाजारों की व्यवस्थाएं , बैंकों की व्यवस्थाएं ठीक कर दो, हम अपने घर मे हमेशा ही बैठेंगे।

आपने तो जब चाहे बिना बाजार की तैयारी के लॉक डाउन लगाने के बाद खोल दिया। बाद में सारे प्रयोग हो रहे हैं. ऑड इवन, लेफ्ट राइट, कौनसी दुकाने कब कब खुलेंगी, कितने कर्मचारी होंगे, दुकान के बाहर खड़े लोगों के लिए जुर्माना भी दुकानदारों से वसूल कर लिया , मतलब दुकानदार सड़क की भीड़ के लिए भी जिम्मेदार हो गया। क्राउड कंट्रोल भी वही कर ले. कल से ट्रैफिक सिग्नलों पर भी उसे खड़ा कर देना चाहिए , और क्या सहयोग चाहिए व्यापारियों से ?

सामान्य गणित की समझ भी बता देगी कि किसी बाजार में 8 घंटे में 1200 लोग आते हैं तो प्रति घंटे 150 लोग आएंगे. उसी बाजार को आप 8 घंटे की बजाय 4 घंटे का कर दीजिए, प्रति घंटा आने वालों की संख्या 300 हो जाएगी. भीड़ बढ़ेगी या घटेगी , खुद ही देखिये लेकिन हमारे अहिंसा चौराहे पर आज़ दोपहर में एक डेढ़ घंटे में लगभग सात आठ सो लोगों का आवागमन रहता है वह भी हमारे पुलिस जाब्ते की सख्त मौजूदगी में

सोशल डिस्टेंसिन्ग का पालन कैसे होगा जब शहर के आस पास के गांवों और कस्बों से आने के लिए सार्वजनिक परिवहन सेवा नही होंगे। मजबूरी में एक ही दोपहिया पर तीन तीन लोग गांव से शहरी क्षेत्र में आएंगे। पर हम बसें या मिनी बसें नही चलाएंगे क्योंकि हमें लगता है कोरोना नही दंगा है जो रेलगाड़ियों ओर बसें चलाने से ज्यादा फैल जाएगा। हमे आदत वही है ना, क़ानून व्यवास्था संभालने की, और वही तो हम कर रहे हैं।

राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार राज्य के सभी जिलों में हजारों पार ओर हमारे बाड़मेर जिले ने भी हजार का आंकड़ा जितना जल्दी हो पार कर लेगा। बताओं भाई सही बात है की नही, हमारे अपने जागरूक समाज के कई लोग कह रहे हैं ” भाई साहब लोग मान ही नही रहे, कोआपरेट ही नही कर रहे , इसीलिए कोरोना भड़भड़ी आज-कल ज्यादा फैल रहा है, इनको तो पुलिसिया डंडे की वेक्सीन ही चाहिए” मानो पुलिस का डंडा न हो, कोरोना की जीती जागती वैक्सीन हो, जिसका रंग जरूर खाकी है।

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